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Showing posts from 2014

दूसरों से ईर्ष्या करने से अच्छा दूसरों की अच्छी बातें क्यूं नहीं अपना लेते?

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ज़िंदगी में अगर कोई आपसे ज्यादा सयाना हो तो उसमें उस इंसान से ईर्ष्या मत करो. उसके साथ रेहकर कुछ सीखो या फिर ये मान लो के आप उस काबिल नहीं हो और उनकी इज्जत करना सीखो. इस से हर किसी का भला ही होगा. यदि आप ईर्ष्या करने लगे तो साजीग है की आपकी उनसे ज्यादा अच्छी बनेगी भी नहीं और बेवजह आप एक अच्छा इंसान की दोस्ती को खो दोगे. इससे नुकसान आपका ही होगा क्यूंकि कुछ अच्छा सीखने का और अच्छी दोस्ती को - दोनो का ही अवसर आपने खो दिया।  सुना है शक भी एक ऐसी ही बुरी बला का नाम है। बेवजह अपने मन के विकृत खयालात को पनपने ना दें इस से आप के अंदर की कमजोरी ही नज़र आती है और सामने वाला इंसान कुछ नहीं जानते हुये अपनी ज़िंदगी जीता है। ऐसे में आप एक अच्छे दोस्त को खो भी सकते हैं हमेशा के लिये  कभी भी अपने दिल के विकृत खयाल को पनपने देने से पेहले एक बार अपने दिल में टटोलकर -जांच कर लेनी चाहिये ताके बात का बतंगड ना बने और आप औरों के सामने मज़ाक की वस्तु ना बनें. ईर्ष्या से आप अपना अस्तित्वा खो बैठेंगे और इसके जिम्मेवार आप खुद होंगे !

बेहते पानी को कौन रोक सका है? हो सके तो बेहा चलो मगर उसे रोकने या टोकने की कोशिश ना करो....

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बेहते पानी को कौन रोक सका है? हो सके तो बेहा चलो मगर उसे रोकने या टोकने की कोशिश ना करो. मैं बात कर रही हूँ उस पल की जब इंसान किसी खुशगवार या ज़िंदादिल इंसान को देखकर लालस रखता है के काश मैं भी इनके संग दो पल जी लूँ ताके ज़िंदगी जीने का एहसास और वो खुशी दोनो ही हासिल हो जाये मगर ये भूल जाते हैं के इसे बांध के रखोगे तो ये आपका नहीं रहेगा जितना खुला छोड़ोगे उतना ही फासला काम होगा . जिसका स्वभाव बेहते पानी की तरह हो उसे बेहने देना चाहिये और क्यूं नहीं उसकी प्रवृति और उसकी स्वतंत्रता ही है जो उसके अंदर के इंसान को जगाये रखता है जैसे ही हम रोक-टोक करते हैं उसकी प्रवृति में फरक पड़ता है और जो सबसे ज्यादा पसंदीदा इंसान माना जाता था वोही इंसान इंसान ना रेहाकर हेवान बन जाता है क्यूंकि किसे अपनी आज़ादी गवारा नहीं?  बेहते पानी को बेहने दो, देखना ये चाहिये के क्या तुम बेहा सकते हो उसके साथ? गर नहीं तो कोशिश कीजिये मगर बेहती रफ़्तार को कम करने की कोशिश कभी ना कीजिये.... ये सभी के भले के लिया है ... 

प्यार करें मगर निस्वार्थ...!

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ज़िंदगी में तो सभी मोहब्बत करते हैं मगर मोहब्बत को कौन मोहब्बत करता है ? है ना बेचइदा सवाल.... लगना भी चाहिये क्युंके जो मोहब्बत से ना करे मोहब्बत वो क्या जाने मोहब्बत का मोल. जो मोहब्बत या प्यार देखने मिलता है वो सिर्फ एक स्वार्थी प्यार है जी हाँ ये प्यार स्वार्थी इसीलिये है क्युंके आपको कोई अच्छा लगता है इसीलिये आप उनपर जान लुटाते हैं मगर हक़ीक़त मैं मोहब्बत है? सोचिये यदि कोई दीखने में सुन्दर और आकर्षक ना होकर उसकी अच्छाइयों को जानकर और समझकर उस से प्यार किया जाये तो कोई मतलब भी रेहता है क्युंके सुंदरता हमेशा साथ नहीं देती तो क्या आप अपने प्यार को बदलते रहेंगे ? है ना बेचइदा सवाल ;)  दुनिया में हज़ारों मिलेंगे जो आप पर जान लुटायेंगे मगर कोई नहीं होगा जो आप पर सही अर्थ में मरमिटेगा क्युंके उनका प्यार स्वार्थी है और प्यार कभी भी निस्वार्थी होता है - सोचिये  माँ का प्यार सच्चा और निस्वार्थ होता है? यदि वो  माँ निस्वार्थी है तो वो ना तो अपने  बच्चों से ना ही अपने पति से या किसी भी व्यक्ति से किसी भी बात की उम्मीद रखेगी - इसका मतलब इंसान को नीयत से ही निस्वार्थ होना चाहिये क्युंके जो

क्या आपने कभी मोहब्बत किया है?

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कभी मोहब्बत मत करना क्युंके इसे करने के कयी नुकसान हैं जैसे की दिल का मचलना, सांसों का अत्यधिक ज्यादा तेज़ चलना तो कभी बहुत धीरे चलना, हर पल ऐसा एहसास होना के सीने पर बहुत भरी-भरकम समान जी हाँ गुलज़ार साहब की नज़्म की तरह "कुछ समान " मिलने पर दिल का ना खुल पाना और ना मिलने पर जो बैचेनी उफ्फ़ ... या अल्लाह कोई मौत ही देदे तो क्या गम है लेकिन वो भी तो इतनी आसानी से नहीं मिलती  क्या आपने कभी मोहब्बत किया है? और जवाब हाँ है तो ज़रूर बताईयेगा अपनी व्यथा।.. 

ईर्ष्या सिर्फ इंसान के अंदर की असुरक्षा है ...

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ज़िंदगी में किसी से ईर्ष्या करने से क्या फायदा करना ही है तो अच्छे गुणो को अपनाओ जिस से खुद भी तारीफ के काबिल बनो वर्ना ईर्ष्या से दुश्मनी और कड़वाहट ही पैदा होती है और ये आग जब फैलती है तब इसे किसी भी तरह रोका नहीं जा सकता। सब कुछ नष्ट हो जाता है और जब तक पता चले बहुत देर हो जाती है। इंसान अगर इंसान से ही नफरत और द्वेष  की भावना रखे तब वो तो जानवर के भी काबिल नहीं रेहता - अफसोस !

मर्द भी पीड़ित हैं आज की नारी से जिसे कभी हम अबला समझते थे ....!

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ज़िंदगी में बहुत कम समय में बहुत कुछ सीखने और समझने का मौका मिला। कयी बार हम देखते हैं लोगों के रवैये कभी कुछ तो कभी कुछ लेकिन इसी रवैये को आप दो तरीके से देख सकते हैं या भांप सकते हैं और वो ये के शायद ये प्यार से हक दीखाने का नज़रिया है या फिर कहें तो वाक़ई तकलीफ देने के इरादे से ही है . मैने औरतों को समय समय पर मौके का फायदा उठाते देखा है जब में ये केहा रही हूँ तब ये नहीं केहा रही के आदमी सब शरीफ हैं :) , ना ऐसा नहीं लेकिन हम औरतें भी कुछ कम नहीं हैं मौका देखा नहीं अपने फायदे के अनुसार हम अच्छे बनेंगे या फिर बुरे।  मेरी बात तो कुछ ऐसी है के कभी किसी से कुछ उम्मीद ही नहीं रखी जो भी रखा अपने पिताजी से ही रखा और जैसे ही उनके सर से जिम्मेदारी खत्म होकर आत्मनिर्भर का समय आया तो किसी और पर निर्भर होने की लालसा भी नहीं रही। मुझे लगता है किसी पर इतना निर्भर होना और वो भी बेफिक्र होकर तो पिता से बढ़कर एक लड़की के लिये कौन हो सकता है। लेकिन दुनिया में ऐसे भी औरतों को देखा है जो पिता का स्थान खत्म होते ही पति के सर चड़ जाते हैं के मुझे ये चाहिये वो चाहिये महल चाहिये बड़ा घर, तो कभी ज़ेवर, त

ज़िंदगी बहुत छोटी है दोस्ती से इसे खुशनुमा करो ना के दुश्मनी से ...!

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आज अनायास ऋषब की याद आई - हाँ बात है तो कयी साल पुरानी जब ११ वीं कक्षा में मैं पढ़ती थी और ऋषब शायद छोटी कक्षा में था मगर था हूमसे भी उम्र में बड़ा. ऋषब था बड़ा नेक बच्चा मगर थोड़ा लड़कपन तो थोड़ी अकड़ भी थी उसमें अभी. कभी किसी अध्यापिका की डांट पड गयी तो कभी किसी दूसरे बच्चों ने शिकायत लगा दी जो भी हो ऋषब के दिन बहुत बुरे होते थे. जाने मेरी मुलाकात किधर हुई मगर ऋषब बड़ी इज्जज़त से पेश आता था मुझ से. एक दोस्त की हेसियत हमेशा खयाल रखता था चाहे फिर वो उसकी उम्र का हो या फिर उस से कम उम्र हो या फिर बुज़ुर्ग ही क्यूं ना हो।  एक दिन ऋषब हमारी कक्षा में कुछ लड़कों के साथ बातें करते - करते किसी की पेन्सिल बॉक्स से ब्लेड लेकर खेलने लगा और उसे तोड़कर-मरोड़कर  वहीं  कहीं छोड़कर चला गया। हमारी कक्षा के विद्यार्थी  खेलने  के बाद अगली विषय की पढ़ाई के लिये कक्षा में पधारे. कक्षा में अध्यापिका भी आगयीं थी इस वजह से जो जहां जगह पा सका वहीं बैठ गया और अध्यापिका को सुनने में लीन हो गया. श्रीमती सिन्हा थी हमारी अध्यापिका जो के  हमें   जीव-विज्ञान  (biology)  पढाती  थी. उन्होने बोर्ड पर आकर कुछ ल

सच्चा होना गुनाह है ...

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सच्चा होना गुनाह है ये जानकर मेरे अंदर का एक बहुत बड़ा हिस्सा मर सा गया आज. कहाँ सुना था सत्य मेव जयते लेकिन दुनिया सिर्फ वोही सुनना चाहती है जो वो सुनना चाहते हैं. बात मेरे पिताजी की याद आई के ज़िंदगी में दो तरह के लोग मिलेंगे एक जो तुम्हारी सच्ची बातें सुनकर भी तुम्हारा साथ देंगे और दूसरे तुम्हारी सच्ची बातें सुनकर तुम्हें अपना दुश्मन समझेंगे. जो दोस्त बन जायें वो हमेशा के लिये होंगे लेकिन जो दुश्मन होंगे उनसे सतर्क रेहना क्युंके वो सच का साथ देने वालों के दुश्मन हैं . मुझे लगता था इंसान सच और झूठ का साथ देता है और उसे इंसान के साथ और झूठे होने से वर्क नहीं पड़ता क्युंके बापू भी कहा करते थे के पाप से घृणा करो पापी से नहीं। खैर, दिल को धक्का लगा के अपने बारे में ये जानकर के मैं  ज़रूरत से ज्यादा सच बोलती हूँ और ये ठीक नहीं है  वाक़ई गलत तो मैं ही हूँ ना, जो सच बोलती हूँ और आंख में आंख डालकर सच बोलती हूँ बिना किसी झिझक के या भय के.  जब एक इंसान ज़रूरत से ज्यादा सच बोलता है तो दुनिया उसका मुंह बंद कर देती है -  हर उठते हुये का गिरना भी पड़ता है, लेकिन गिराता कौन है उसकी भी औकात

प्यार की कोई सीमा नहीं होती और ना ही कोई नियम....

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एक था मोटा और एक थी मोटी उन दोनो की एक खास बात ये थी के दोनो ही मोटे नहीं थे, लेकिन वो के दूसरे को प्यार से इसी तरह संबोधित करते. मोटा जब मोटी से बात-चीत के कमरे में मिला (छट - रूम) तब वे दोनो ये नहीं जानते थे के उन्हें यहाँ उनका अपना कोई मिलेगा क्यूंकि ऐसी कोई उम्मीद से नहीं आये थे वो यहाँ. सिर्फ एक वक़्त गुज़ारने का साधन था लेकिन उस रात ऐसी बात नहीं थी। दोनो एक दूसरे को जानते भी नहीं थे और मोटा - पंजाबी मुंडा के नाम से आया था और मोटी पंजाबी कुडी के नाम से आई थी जो भी दोनो ने जो अंताक्षरी में बात-चीत शुरू की के कब सुबहा के २ बजे इसका दोनो को ही अंदाज़ा नहीं लगा बस फिर क्या था पंजाबी मुंडे ने जाते-जाते पंजाबी कुडी से एमआईल अड्रेस लेलिया और बस ज़िंदगी भर का रोग या फिर नाता बना लिया। मुंडा लम्बी - लम्बी चिट्ठी लिखता और अंग्रेजी के गाने लिख कर भेजता. पंजाबी कुडी ये सब पढ़कर खुश होती खासकर इसीलिये की ये सब उसके पसंदीदा गानो में से एक होते और उसे ताज्जुब होता की मुंडे को ये सब कैसे पता के उसकी पसंद क्या है? खैर जो भी हो दोनो चिट्ठियों से बोर होकर जल्द ही फोन की दुनिया में आये और बस फिर क्या

प्यार क्या होता है?... कुछ बात मेरी मां की

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प्यार क्या होता है? .... क्यूं होता है, इसका जवाब कभी भी किसी से भी नहीं मिला मुझे आज तक ... मगर हाँ, प्यार क्या होता है? प्यार ज़रूरी नहीं के केहाकर ही होता है. कई बार प्यार जो के एक एहसास होता है, उसे समझना भी होता है और सही अर्थ में प्यार के इस एहसास को समझने वाला ही प्यार के लायक भी होता है। आज अनायास मैं गाड़ी चलाकर बाज़ार जा रही थी जब खयाल आया ... कुछ बात मेरी मां की.  मेरी मां, सख्त है अर्थपूर्ण नहीं है वो कभी भी किसी को भी कोई बात केहाकर नहीं जताती यहाँ तक के अपने बच्चों से भी कभी ये नहीं कहा के उन्हें  प्यार है बल्कि उनकी हर वो बात जो हमसे सम्बंधित होती हैं उनका पूरा-पूरा ध्यान रखा है. लेकिन खास आज मैं ये केहना चाहती हूँ के मेरी मां आजीवन अब तक शाकाहारी रही हैं मगर मेरे पिता मांसाहारी रहे हैं और बेहद पसंद करते हैं जब मेरी मां बनाती हैं - जी हाँ, ताज्जुब है ना? आज मुझे उस समय की जोड़ी के बारे में बताना है जो के आज के पीढी के नहीं हैं लेकिन उनके प्यार करने का अंदाज़ भी निराला है। मेरी मां शाकाहारी होने के बावजूद मेरे पिताजी के लिये मांसाहारी भोजन बनाती है , मेने कभी मेरे ज

अफसोस कब वो दिन आयेंगे....

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त्योहारों का देश है हमारा भारत और उसकी संस्कृति की शान उसके लोगों से है जो इन्हें मनाते हैं . पौराणिक काल में मंदिर ही ऐसे जगह होते थे जहां सामूहिक तौर पर लोग मिलते और खुशियाँ मनाते जिसका धर्म से कोई सम्बंध नहीं होता, दीवाली श्री राम के आगमन की खुशी में मनाते हैं तब भी चाहे हिन्दू हो या मुसलमान, ईसाई हो या फिर सिख, जैन हो या बुध - सभी एक होकर त्योहार मनाते, मिठाईयों का आदान प्रदान करते. ठीक ईद के समय भी हर किसी जाती-प्रांत के लोग सेवाई खाने की इच्छा में मुसलमान भाई के घर ज़रूर हो आता या आती. त्योहार हमारी संस्कृति को ही नहीं बल्कि हमारे लोगों में भाई-चारा और दोस्ती का मेल-जोल बढ़ाते हैं. लेकिन अब का ज़माना वाक़ई कलयुग से भी बढ़कर है जहां आस्तिक हो या फिर नास्तिक हर किसी ने नाम में दम कर रखा है . हर त्योहार को ईश्वर, अल्लाह नानक बताकर उसकी विवेचना करते और फिर क्या है  नास्तिक वहां मचल पड़ता है और बस हर कोई अपने को सही बताने और जताने की होड़ में लगा है। कब रुकेगा ये सब, कब होगा इसका अंत क्युंके जो वाक़ई में त्योहारों से बहुत कुछ जोड़ता है अपने जीवन से, बचपन से, अपने साथियों से उन सबक

साथियों को दशेहरा मुबारक हो

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आज सुबहा मैं अपनी सहपाठी से बात कर रही थी जब दशेहरा की बधाई  मिली  तब अनायास ही बचपन का दशेहरा याद आया. राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में रेहते वक़्त दस दिन तक रामलीला चलता था, जाने-पेहचाने लोग अभिनय करते थे और हर एक चौपाई गा के सुनाया जाता था. केन्द्रिया विधायला में रामायण जिसे साथ खंडो में बांटा गया था उसे पढ़ते वक़्त भी रामलीला की रामायण से कथा को जोड़ने की कोशिश करते थे. दशरथ और कैकई और उनकी चाल फिर राम को चौदाहा वर्ष वनवास और फिर एक के बाद एक खण्ड अभिनीत किया जाता था। जब दसवें दिन राम अपने रामबाण से रावण का वध करते हैं तब मन में जहां खुशी होती थी के लंका पर विजयी हुये राम, लेकिन फिर एक दुख भी होता था के अब रात को रामलीला नहीं होगा क्युंके जैसे हर कहानी की शुरुवात होती है उसी तरह उसका अंत भी. दूसरे दिन दोपहर को रामलीला की टोली निकल पड़ती थी राम, सीता, लक्ष्‍मण, हनुमान को एक मिलिटरी ट्रक में बैठाकर सारे कॉलोनी में जुलूस  निकाला  जाता था और सारे बच्चे राम-सीता को देखने के लिये दौड़ पड़ते थे. ये जानते हुये भी के सीता के रूप में कोई और नहीं सामने वाले अंकल का बेटा है लेकिन सीता के अवतार में

मोहब्बत का नाम ही संगीत है फिर चाहे शाम ढले या सेहर शाम तक चले ;)

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आज शाम ढले, मैने रेडियो स्टेशन पर अपना संगीत, गीत और कविता के माध्यम से लोगों से जुड़ने की कोशिश की  ये पेहली बार था जीवन में एक ऐसा कदम उठाना जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की थी। वर्ना लोग कितने व्यवसाय में रुचि रखते हैं और फिर कोशिश भी करते हैं के देख लें यदि अच्छा लगा तो कर लेंगे वर्ना दूसरी देखलेंगे . खैर रेडियो एक व्यवसाय तो नहीं लेकिन एक शौक के तौर पर शुरवात हो गयी और रेडियो ज़िंदगी की मेहरबानी है के मौका देने से वो भी नहीं चूके. हमेशा से एक आस रही के अपनी पसंद के गीत-संगीत सुनायें ताके लोगों को और भी संगीत का , या कलाकारों के बारे में जानना चाहिये और उनके संगीत को भी समझकर पसंद कर - सराहना चाहिये - ऐसी ही एक कोशिश - "शाम ढले" कार्यक्रम के ज़रिये मैं संगीत की विवेचना करना चाहती हूँ। आज पेहला कार्यक्रम करते वक़्त मैं खुद हर एक गीत पर नाच रही थी, गीत के बोल गा रही थी - बेहद हृदय में खुशी के फूल खिल पड़े. जाने क्यूं दिल को ये तस्सली हुई जब ऐसे गायकों और कवियों के संगीत को पेश किया जो के फिल्मों से हटकर संगीत की पवित्रता में अपना स्थान बनाना चाहते हैं, ऐसे गुणी कलाकारों को

अच्छे को ले और बाकी से सीख लें - मेरा भारत महान

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लोकतंत्र मैं हल्ला मच गया सबने कहा शेर आया शेर आया :) जी मोदी जी अमेरिका पधारे लेकिन शायद ऐसा लगा मानो सिर्फ आज तक वोही पधारे भारत से - खैर वैसे भी हम भारतीय भावुक प्रवृति के हैं और शायद इसी भावुकता का फायदा युग-युग हमारे देश की अर्थव्यवस्था को हिलाता और डुलाता रहा ! भावुक होना ठीक है क्युंके हम इंसान जो हैं अब भी, लेकिन भावुकता मैं बेहजाना कहाँ तक सही है ये हमारी अब की पीढी और आनेवाली जनकल्याण को निश्चित करना है क्युंके भावुकता से कभी कोई मसला सुलझाया नहीं जा सकता और यही सभी को जानना और समझना है।  आज बहुत दिनो बाद राष्ट्रगीत सुनकर यकायक आंख से आंसू निकल पड़े, जाने क्यूं में अपने आपको अपनी भावनाओ को रोक ना सकी बस दिल की गेहराईयों से बचपन याद आगया जहां हम पले -बड़े हुये वहां की सीख दी देश के लिये मर-मिटने का जज़्बा जो कुट कुट कर दिल में भरी थी वो पल भी याद आया जब टोरोंटो में एक जर्नलिस्ट से मेने पंगा लिया था क्युंके उसने न्यूक्लियर टेस्ट के तेहत एक आर्टिकल लिखा जिसमें मेरे भारत को उसने बैलगाड़ी और लालटेन वाला देश कहा था ... एक वो दिन था और एक आज वाक़ई हम माउस से खेलने वाले देशवासी

नींद एक सफर ...

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ये नींद तेरे साथ का सफर भी क्या सफर है। गुनगुनाती हल्के से थपथपाती सुनहरे सफर पर ले जाती  मेरी अपनी कहानी केहा रही हूँ आज ... बचपन में पढ़ा था विज्ञान की किताब में के तंदुरुस्ती के लिये किसी भी जीवि को आठ घंटे की नींद का सफर तैय करना ज़रूरी है। जी हाँ, एक वो बात पढ़ी और फिर ज़िंदगी भर उसे निभाई। कभी काम की मुसरुफियत तो कभी वीकेंड के लम्बे मस्तियों भरे पलों की वजह से जब भी आठ घंटे नींद का सफर नहीं कर पायी तब मैने बड़े ही बदले की भावना से अपने आपको ललकारा है और जिद्दी होकर आठ घंटे सुख की नींद भी ली है . आज की सुबहा कुछ ऐसे ही रही -- पिछले दो हफ़्ते से काम और काम की वजह से मेरे आठ घंटे की नींद में खलन पड़ रहा था और मैने भी हौसला रखते हुये वीकेंड का इंतज़ार  किया ....शुक्रवार की रात थी १२ बजकर रात धीरे - धीरे शनिवार की तरफ बड़ रही थी और मैने अब के मौका जाने ना दिया बस पेहली जो बस मिली उसी में सवार होगयी और निद्रा की गोद में चली गयी . सपनो के गांव से गुज़रते हुये एक कहानी से दूसरी पर से होते हुये कैसे प्रातःकाल ७:३० बजे जब मेरी पलकों ने किवाड़ खोला, अपनी किवाड़ से जब कमरे की किवाड़ तक नज

जी हाँ आप - कृपया आप ही रहें क्युंके बनावट के फूलों से खुश्बू कभी नहीं आती !

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ज़िंदगी एक है और उसे अपना समझकर जियो तो अपने होने का भी एक गौरव होता है, सही कहा ना? अजीब लगता है ये देखकर के इंसान कुछ और बनने की कोशिश में लगा रेहता है जाने क्यूं ? किसके लिये?  मेरा एक सीधा- साधा फंडा है और वो ये के हम तो बस ऐसे हैं पसंद करो या ना करो - किसी और को अच्छे लगने के लिये हमसे बदला नहीं जायेगा - क्यूं? मानते हो या नहीं? गर नहीं तो मैं यही कहूँगी के आप ढोंगी हैं, आप बेहरूपिया हैं, आप सबकुछ हैं मगर आप "आप" नहीं हैं . जी हाँ, ज़िंदगी एक ही है उसे खुद बनकर, खुद होकर जियो तो जीने का भी कोई मतलब है वर्ना क्या हम कब कहाँ किस मोड पर हुये और कहाँ कैसे कब किधर को चल दिये ! जी हाँ आप - कृपया आप ही रहें क्युंके बनावट के फूलों से खुश्बू कभी नहीं आती !

झूठ क्यूं चिल्लाता है और सत्य क्यूं रोता है?

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सत्य मेव जयते ये नारा हम लोग बचपन से सुनते और पढ़ते आरे रहे हैं लेकिन वाक़ई में सत्य की विजय का पता नहीं लेकिन सत्य की मर्यादा को भी लोग नहीं मानते और ना ही इज्जत देते हैं वर्ना झूठ क्यूं चिल्लाता है और सत्य क्यूं रोता है? सोचने वाली बात है आज भी बातों से सक्छाई को नीचा दीखाया जाता है और सच ये हकीकत अपनी आँखों से देखकर शायद खुद पर यकीन नहीं करता इसीलिये तो सत्य रोता है और झूठ चिल्लाता है। झूठ के पैर नहीं होते ऐसा हमने सुना था मगर झूठ के कंठ में बहुत आवाज़ होती है और शायद अपने आपको सही बताने के लिए चिल्लाने की नौबत आती है वर्ना सत्य की तरह शांत क्यूं नहीं रेहता ! फिर भी सवाल यही है के झूठ क्यूं चिल्लाता है और सत्य क्यूं रोता है?

ज़िंदगी में कभी किसी के लिये कुछ करो तो दिल से करो और उसे बोलकर अपमान मत करो...

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ज़िंदगी में कभी किसी के लिये कुछ करो तो दिल से करो और उसे बोलकर अपमान मत करो.  इंसान कभी किसी के लिये कुछ भी करता है तब उसे दया की भावना से नहीं बल्कि नेक दिल से सहायता के रूप से ही करना चाहिये। कभी भी किसी की मदत करके उसे आप बोलकर दीखा दो तब वो नेकी, नेकी ना रेहकर एक एहसान बन जाता है और हर खुद्दार इंसान को ये एहसान बर्दाश्त नहीं होता।  ज़िंदगी में इंसान के पास सामाजिक तत्वों की कमी हो सकती है किन्तु उसके लिये आत्मा सम्मान का खून होते हुये कोई नहीं देख सकता. कभी कोई आपके पास उम्मीद करके आता है सहायता या विश्वास भी दीखता है तो उसे उसकी कमज़ोरी मानकर कभी मत चलना। किसी के आत्मविश्वास और विश्वसनिया को भंग ना करना क्युंके फिर कभी वो इंसान तुम्हारे पास किसी भी उम्मेद से नहीं आयेगा और कभी -कभी अच्छी दोस्ती भी दूरी में बदल जाती है . करो मदत अपने दिल से किसी के सामने उसकी नुमाइश करके आप किसी और के विश्वास का अपमान कर रहे हो बस इसका ध्यान रहे ! नेकी कर दरिया में डाल, कर्म करो और फल की कामना मत करो ऐसे कई मुहावरे जीवन में पढ़ने मिलेंगे जो किसी वजह से शामिल हैं.  आखिरकार एक बात हर इंसान

ज़िंदगी मिली है तो उसे प्यार करना सीखो फिर चाहे वो अपनी ज़िंदगी हो या किसी और की ...!

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ज़िंदगी में इंसान अगर इंसान की कद्र करना जान ले तो फिर उसकी आधी तकलीफ तो वहीं खत्म हो जाती है क्यूंकि उसके पास इंसान होने का दिल है और साथ में कयी इंसान भी हैं. जिस तरह हम सभी ने सुनी है एकता और एकजुट होने की कहानी जहां बूढ़े पिता ने अपने पांचों या सातों बेटों को बुलाकर एक-एक लकड़ी दी थी ये केहाकर के इसे तोडो और फिर किस तरह सारी लकड़ियाँ एक साथ कर तोड़ने का आदेश देने पर बेटे लकड़ियों को तोड़ नहीं पाये - उसी तरह गर इंसान के पास इंसान का साथ हो तो उसे किसी भी मुश्किलातों का सामना करने में परेशानी नहीं होती. मामला तब पेचीदा होता है जब इंसान, इंसान से ज्यादा आडंबरी चीज़ों से दिल लगा बैठता है और उसकी ख्वाइश में अच्छे से अच्छे इंसान से भी दुश्मनी मोल लेता है आखिर इसका अंजाम?  पैसे, आडंबरी वस्तुयें सभी मोल पर मिल जाते हैं किन्तु एक सच्चा और अच्छा इंसान मिलना बहुत मुश्किल होता है. ज़िंदगी में इंसानों से प्यार करें ना के पैसों और भौतिकवादी दुनिया से. 

दिये से दिया जलता है और ऐसे ही अंधेरा मिटता है !

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जीवन में कभी किसी के लिये कुछ करने की इच्छा हो तो कुछ ज्यादा सोचने की ज़रूरत नहीं पड़ती क्युंके उस इच्छा में और करने की लगन में सब कुछ शामिल हो जाता है. आज "अंतरध्वनी" के तेहत मुझे भी न्योता मिला पंडितों और ज्ञानियों की सभा में जाने का और कुछ अत्यंत साधारण लोगों से मिलने का अवसर मिला. ये कार्यक्रम एक धर्मार्थ-संघठन के लिये दान और चंदा इक्कॅटा करने का कार्यक्रम था. जो चंदा जमा हुये हैं उन्हें भारत के एक छोटे से गांव में भेजा जायेगा जहां एक स्कूल बना है और गांव के वो बच्चे जो कभी शिक्षा पाने का ख्वाब भी नहीं देख सकते ऐसे बच्चों को और उनके परिवारों को एक आशा की किरण दीखाते हुये  डॉक्टर श्री. विजय तिवारी  जी अपनी संस्था दया सुमित्रा एजुकेशनल सोसाइटी इनकॉर्पोरेशन के तेहत " द्सेट पब्लिक स्कूल " चलाते हैं  और इनकी ये संस्था  भारत सरकार द्वारा "गैर-लाभ" संस्था करार दी गयी है.  हम जहां कयी रुपये आम चीज़ों में फालतू में खर्च कर देते हैं वहीं १ डॉलर से भारत के इस द्सेट पब्लिक स्कूल में एक बच्चा या बच्ची की पढ़ाई, एक वक़्त का खाना, उसकी टीचर की फीस का खर्चा पूरा

प्यार में जलना या ईर्ष्या करना कितना ज़रूरी समझा जाता है?

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प्यार में जलना या ईर्ष्या करना कितना ज़रूरी समझा जाता है? शायद कुछ प्रतिशत लोग इसे सही मानते हैं और कुछ प्रतिशत लोग इसे बुरा भी मानते हैं क्युंके अगर प्यार हो किसी से और उस  पर  भरोसा भी हो तब किसी बात से जलन या ईर्ष्या होने की आवशयकता नहीं है. लेकिन ऐसा भी मानना है के सच्ची मोहब्बत है तो जलन और ईर्ष्या तो होना स्वभाविक है।  खेर ये एक हद तक अपनी - अपनी सोच है, क्युंके अगर जिस से आप मोहब्बत करते हैं उसे आप पर विश्वास है तब आप किसी भी इंसान से बात करलें और वो कितना भी गुणी हो तब भी ईर्ष्या नहीं करेगा - लेकिन हाँ स्वयं में हमेशा कोई कमी मेहसूस करोगे तो हर किसी से ईर्ष्या और द्वयेश होगा. प्यार करें और प्यार करने दो - इन सब बातों से बेर -द्वयेश -ईर्ष्या सब उड़नछू हो जायेंगे और लोग ज्यादा सुखी होंगे। लेकिन फिर भी थोड़ा सी ईर्ष्या प्यार में ज़रूरी है क्युंके इस से ये पता चलता है के अगला तुम्हें खोने से डरता है ;)

ये किन एहसासों का दरिया है जहां दिल डूबने से नहीं घबराता?

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ऐसा क्यूं होता है की किसी एक के लिये दिल क्यूं मचलता है, बेचेन रेहता है या फिर उसी की यादों में खोया रेहाना चाहता है?  और उसी इंसान के आने से दिल के अंदर एक तूफान सा उठता है लेकिन चेहरा सन्नाटे से भरा रेहता है या फिर घबराया सा नज़र आता है.  किसी एक के लिये सभी सीमायें लांघकर, वक़्त ना हो तब भी बे-वक़्त वक्त निकालकर मिल आना, हर एक अदा पर दिल की तरंगो का लेहर उठना - ये किन एहसासों का दरिया है जहां दिल डूबने से नहीं घबराता? ये कैसे एहसास हैं जो बुलंदियों पर उड़ान भरते हैं और नीचे गिरने का भय भी नहीं रखते ? हो ना हो ये एहसास किसीके प्यार के ही नज़र आते हैं वर्ना इतनी हिम्मत और हौसला किसके पास हो सकता है?  प्यार की ताकत और उसके एहसासों की कोई सीमा नहीं तो उसकी कोई कल्पना भी नहीं... ये एहसास सिर्फ मेहसूस किया जा सकता है ना की बांटा या सुनाया जा सकता है !

कल किसने देखा?

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केहते हैं कल किसने देखा, अब देखो मेहता अंकल की बेटी संगीता पड़ोस के नटराजन अंकल के बेटे वेंकटेश को बेहद पसंद करती थी. रोज़ उसे स्कूल जाते समय तो स्कूल से आते समय देखती और वेंकटेश का ध्यान अपनी तरफ खेंचने की कोशिश करती. वेंकटेश किसी से नहीं तो अपनी माँ वैजयंती से बहुत डरता था और इसी वजह से कभी किसी लड़की की तरफ आंख भी उठाकर नहीं देखता था ! वैसे ज़रूर देखता होगा नहीं? छिप-छिप कर हा हा हा ..खेर जैसे में यहाँ हंस रही हूँ उसी तरह वेंकटेश के दोस्त और संगीता की सहेलियाँ जो जानती थी की संगीता को वेंकटेश पसंद है, वो भी हँसती थी। एक दिन संगीता ने आव देखा ना ताव, अपनी सहेलियों और वेंकटेश के शर्मीले स्वभाव से तंग आकर एक दिन स्कूल जाते वक़्त वेंकटेश जब अपनी मोटर साइकल निकल कर जा ही रहा था के संगीता मोटर साइकल के  पीछे की सीट पर सवार होगयी और बस वेंकटेश सीधे तेज़ रफ़्तार से संगीता को लेकर उड़नछू होगया ... दोस्तों कभी कभी प्यार में ये सब तो चलता है ...किसी को तो आगे कदम बढ़ाना पड़ता है ...वर्ना सोचिये आज तक संगीता देखते और वेंकटेश शरमाते रेहते जाते  काल करे सो आज कर, आज करे सो अब, कौनसा जीना

अहंकार को छोड़ दें और स्वयं को हल्का करें क्यूंकि ऊँचाई पर वोही उठता है जो हल्का होता है ;)

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अहंकार अच्छे से अच्छे इंसान को खत्म कर देता है और अगर वो अहंकार को नहीं छोड़ता तब उसका साथ उसके साथी छोड़ देते हैं. ज़िंदगी में जब आये थे तब क्या साथ लाये थे जो कुछ पाने पर या हासिल करने पर इंसान इतना अहंकारी हो जाता है के वो भूल जाता है के जो भी उसने यहाँ पाया है वो यहीं रखकर जाने वाला है फिर चाहे वो उसकी काबिलियत ही क्यूं ना हो! खाली हाथ आये हैं और खाली हाथ जायेंगे तो फिर जब तक यहाँ हैं क्यूं ना हंस-खेलकर बितायें सभी के संग. अहंकार को छोड़ दें और स्वयं को हल्का करें क्यूंकि ऊँचाई पर वोही उठता है जो हल्का होता है विनम्रता को अपनाइये फिर देखिये किस-किस उंचाई तक आप पहुँचते हैं लेकिन हाँ, खैर रखिये अहंकार का मैल ना चढ़ने दें !

ज़िंदगी ज़िंदादिली का नाम है .. ;)

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ज़िंदगी ज़िंदादिली का नाम है और जो इसे जी सका वो तो जीता ही जो ना जी सका वो ना यहाँ का रहा ना ही वहां का रहा जिसका हम मुर्दे होने के बाद ही पता चलता है. आज मेरी सहेली 'वेन हुई' से मुलाकात हुई जो के एक साल से कॅन्सर के रोग से पीड़ित उसके इलाज़ से सफल होकर निकली हैं . बात यहाँ रोग के बारे में नहीं है. में वेन की हिम्मत और हौसले की दाद देती हूँ की ज़िंदगी के कठिन से कठिन परिस्तिथि में भी उन्होने कभी भी हौसला नहीं छोड़ा और अगर कभी कहीं मायूसी या उदासी हुई तब हम सभी दोस्तों ने हौसला दिया और उनके हिम्मत की दाद दी. ८ केमो थेरपी के पूर्ण होने पर "वेन हुई" को इस कॅन्सर से मुक्ति मिलेगी ये डॉक्‍टोरों का केहना था। इसी बात पर एक उमीद नज़र आई थी के सिर्फ ८ केमो , लेकिन जैसे-जैसे एक -एक करके केमो होने लगे और हर केमो के बाद की तकलीफें भी उतनी ही बढ़ने लगी और वेन हुई की मुश्किलें और जीवन से संतुलन बनाये रखने का परिश्रम बढ़ने लगा. हर बढ़ते हुये कठिनाई पर वेन हुई और भी साहसी बनती गयी और आखिर में सफलता हासिल करके ही निकली।  आज वेन हुई हर किसी को जीवन को देखने का दृष्टिकोण दे सकती है औ

सब्र का फल मीठा होता है तो कभी खट्टा भी ...!

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ज़िंदगी में कभी किसी से मिलो तो प्यार से मिलो. हाँ, ये बात और है के हर कोई अपनी तरह या अपनी सोचका हो ये ज़रूरी नहीं. हर इंसान एक जैसा होता या होती नहीं, इसका मतलब ये भी नहीं के हम उनसे दुश्मनी मोल लें . हाँ, ये सही है के आप उनसे कितनी दोस्ती रखें इसका एक अंदाज़ा रख सकते हैं और जैसे-जैसे आप उनसे मिलने -जुलने लगते हो आप उन्हें करीब से समझने लगते हो.  इसी समझने को दोस्ती केहते हैं ;) कयी बार सब्र का फल मीठा होता है तो कभी खट्टा भी, इसीलिये संभल कर और सोच-समझकर किसी भी बात को बढ़ावा देना चाहिये.  इससे किसी का भी दिल नहीं टूटता और ना ही कोई गिले-शिकवे की गुंजाइश होगी .

खुलके मुस्कुरा तू ज़िंदगी

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ज़िंदगी में कभी सोचा है की मोहब्बत की दरअसल उम्र नहीं होती ! जी हाँ, नहीं होती और शायद इसीलिये वो हमेशा जवान होती है ! और ना केवल मोहब्बत बलके मोहब्बत करने वाले भी जवान हो जाते हैं उनको कभी उम्र की जंग नहीं लगती. जो दिन भर लड़ाई नफरत और गुस्सेल प्रवृति रखते हाइन उनकी तो ज्यादा उम्र ना होते हुये भी बुढापे की ओर जाते नज़र आने लगते हैं। प्यार वाक़ई ज़िंदगी को गुलशन बना देता है और यार को गुलज़ार ! ज़िंदगी एक है और इसे अगर प्यार-मोहब्बत से बिताई जाये तो क्या हर्ज़ है? मरना और मारना तो कोई भी कर सकता है, लड़ाई में ताक़त काम और मोहब्बत में सारा जहां आपका दीवाना होता है ! मोहब्बत करें, नफरतों से वैसे भी किसी का कुछ नहीं बनने वाला - ऐसे में कुछ ऐसी पंक्तियाँ ज़ेहन में आई..... खुलके मुस्कुरा तू ज़िंदगी शायद मुर्दे में आजाये ज़िंदगी कुछ नहीं तो बोल पड़ेगी ज़िंदगी नफरतों में खत्म है ज़िंदगी अंत का क्या करेगी ये ज़िंदगी आती-जाती ये है ज़िंदगी फिर क्यूं ना खुलके जी ज़िंदगी मोहब्बत का सिलसिला शुरू कर ज़िंदगी ~ फ़िज़ा

जो गुज़र गया सो गुज़र गया ! वक्त कभी भी किसी का भी इंतेज़ार नहीं करता।

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बात बहुत सालों की है जब किरण और सूरज का प्रेम-विवाह हुआ था ! केहने के लिये किसने किस से प्रेम-किया था इसका अंदाज़ा किसी को भी नहीं था लेकिन दोनो ने बहुत परिश्रम से माता-पिता की सम्मति मिलने तक आंदोलन किया और घरवालों के आशीर्वाद से ब्याह कर लिया ! ब्याह तो कर लिया किन्तु अब जो ज़िंदगी है वो तो दोनो को निभानी है ... जीवन की ऊंच -नीच और ज़िंदगी की भाग-दौड़ में कब दोनो पति-पत्नी की जिम्मेदारी तो निभाने लगे परंतु एक दूसरे के लिये वो प्रेमी और प्रेमिका बन ना कहीं पीछे भूल आये ! शायद इसी प्यार की कमी की वजह से दोनो के बीच एक कड़वाहट सी आगयी ! अब तक तो दोनो एक-दूसरे के आदि हो चुके थे इस वजह से भी एक-दूसरे से दूर भी नहीं रेहा पाते थे, मगर जब भी आमना-सामना हो तब दोनो हे लंगूर की तरह लड़ने-झगड़ने बैठ जाते। सूरज घर के बारे में सोचकर हे घबरा जाता और घर जाने से ही कतरता ! किरण की हमेशा से शिकायत यही रेहती के सूरज कभी वक़्त पर घर नहीं आता ! जो भी हो दोनो को एक-दूसरे से लड़ने के कयी बहाने बैठे-बिठाये मिल जाता था.  एक दिन सूरज अपने दफ्तर में काम की मुसरुफियत में था और उसे उसके मॅनेजर से एक कॉल आता ह

जीवन जीने के लिये है और वो भी खुशी से ना के आँसूओं से!

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ये सोचना की हमारी खुशी किसी के पास धरोहर रखी है तो ये बिल्कुल गलत है. अपनी खुशी अपने अंदर होती है. हमें ही ढूंडना पड़ता है हमारे अंदर की खुशी को . केहते हैं ज़िंदगी ज़िंदादिली का नाम है और मुर्दे खाक जिया करते हैं. लेकिन एक बात है के इंसान जाने-अनजाने में दूसरों को ये एहसास दिलाता है के उसकी खुशी दूसरों पेर निर्भर है और कयी बार इस बात का दूसरे फायदा भी ऊठाते हैं. ज़िंदगी में अपनी खुशी क्या है पेहले इसे समझिये और जब एक बार जान जाओगे के ज़िंदगी में आपकी पसंद और खुशी क्या है तो फिर आपको किसी इंसान के उपर निर्भर करने की ज़रूरत नहीं।  यदि आप का साथी आपका साथ नहीं देता तो दुख तो होगा ज़रूर लेकिन दुखी रेहने के लिये अपने दिल में खुशियों को अलविदा मत कहो. जीवन जीने के लिये है और वो भी खुशी से ना के आँसूओं से!

अपने अतीत से वास्ता रखना अपने अच्छे के लिए !

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अक्सर लोग ज़िन्दगी में पिछली बातें भूल जाते हैं।  इंसान में पहले जैसे उदारता और स्नेह नहीं रहा जाता। कहीं अपने आप में एक गुरुर आजाता है सरे प्रशस्ति और प्रशंसा की वजह से, ऐसे में धरती से जोड़ रखने के लिए उसे एक बार पिछली बातों से अवगत करा देना अच्छा होता है क्यूंकि इससे कई रिश्ते जुड़े रहते हैं। लेकिन अगर इंसान खुद ये आदत रखे जहाँ वो अपनी पुरानी अर्थ-व्यवस्था को याद रखता है तो उसमें विनम्रता बनी रहती है और ये ज़िन्दगी की ख़ुशी के लिए बहुत ही अनिवार्य है। अपने अतीत से वास्ता रखना अपने अच्छे के लिए !

गीदड़ की जब मौत आती है तब वह शहर की तरफ भागता है

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किसी  ने ठीक ही कहा है गीदड़ की जब मौत आती है तब वह शहर की तरफ भागता है ! ऐसे  में उसे जो भी चकाचौध करने वाली बात नज़र आती है वो बस उसी में फँस जाता है !  ज़िन्दगी हसीं तो ज़रूर है दोस्तों ये उन से पूछिये जिन्होंने शायद कम सावन देखे हों मगर सावन सही अर्थ में देखे और समझे हों ! ज़िन्दगी उम्र से नहीं बल्कि अनुभव से ज्यादा मायने रखता है वरना तो लोग सौ साल तक जी भी लेते हैं और फिर भी अनुभव और यतार्थ जीवन की सच्चाई को परखने और समझने में दुविधाजनक हो जाते हैं। यहाँ हम ज़िन्दगी की हक़ीक़तों, अनुभवों और कुछ आम जीवन की बातें करेंगे - अब तक जो आपने पढ़ा वो सही लग रहा है तो मुझे ज़रूर इत्तिला करें और हो सके तो किस विषय पर पढ़ना ज्यादा पसंद करेंगे ये भी बता सकते हैं ! आईये, पहली पायदान पर आज आप सभी का स्वागत है ! ~ सेहर