धोका ना खाना ये "मत" मत देना दलबदलियों को ...
आजकल जो देखो कुछ ना कुछ बेचने निकला है फिर चाहे वो स्त्री हो या पुरुष - कोई फरक नहीं पड़ता . जबतक स्त्री पर अत्याचार होता है तब एक इंसानी दौर पर किसी को भी अपना हक या उतरदायित्वा समझ नहीं आता लेकिन जैसे ही चुनाव का मामला आजाता है हर कोई स्त्री का दुख समझने भी लगता है और उसका परिहारण भी करना। फाड़ दो इस नक़ाब को परिहारण करना ही है तो किसी को किसी पदवी या कुर्सी की ज़रूरत नहीं होती....बस उद्धार करने का दिल होना चाहिये वो ज़स्बा होना चाहिये ढोंगियों का पर्दा फाश हो ! जनकल्याण और लोकतंत्रा का यही है नारा !