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Showing posts from 2015

कट्यार काळजात घुसली ...!

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कट्यार काळजात घुसली - हा चित्रपट मी सुरुवाती पासून रडत बघित्लस. का रडायला आला विचार् केलास तर नीट काही हि सांगता येत नाही कारण एकाधा पुणेची आठवण म्हणून तर एकाधा लहान पणेची आठवण काही हि म्हणा पण रडू आलास मात्र - एकदम भावनिक.  थोडक्यात सांगितला तर अप्रतिम चित्रपट आणि आजचा नवीन पिढीनं  एकदम संस्कृतीशी लक्षणीय मनोरंजन वाटला. संगीत प्रेमींना तर नक्कीच आवढनार अतिशय सुंदर आणि मनोहर भारतीय शास्त्रीय संगीत घराणाच्या जुगलबंदी, शास्त्रीय संगीत न आवाढनारा माणसान सुद्धा चित्रपटात स्वारस्य करतील.  चित्रपट अघधि संगीत, यतार्थ कलाकार बद्धील होत. अहंकाराला कुठेही जागा नाही हे अत्यंत सुंदर आणि सरळ रीतींनी दाखवलास आणि मलातर सदाशिव ह्या पात्र खूपच आवडलास, हा चित्रपट एक भाषा किंवा एक प्रांतासाठी नव्हता हे सगळे जनसामूहांसाठी आहेस आणि प्रत्येकांना शिकायला आणि आनंद घेण्यासाठी गोड चित्रपट आहेस. अभिमान वाटला जेन्वा श्री महेश काळे त्यांचा आवाज स्क्रीन मधून ऐकू आल. धन्य आहे बे एरिया चे सगळे मंडळी - सचिन महानुभावना तर अघदि भागविण्यासाठी रोल होता - श्री सुबोध भावेनं अनेक अभिनंदन ! चित्रपट चा नाव मराठी नाटक चा

"प्रकृति का प्रकोप भूमि पर"....

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इंसान कभी भी अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आएगा शायद इसीलिए इंसान कहलाता है! सबसे अधिक ज्ञानी और समझदार, वरना जानवर नहीं कहलाता? जो वोही करता है जो उस से उम्मीद राखी जाती है ! "प्रकृति का प्रकोप भूमि पर", बस इस वाक्यांश का प्रयोग करते करते वो अपनी हर मुराद पूरी करता है और जब नुक्सान भुगतना पड़ता है तब किसी और का कन्धा खोजता है ! भोपाल गैस कांड २ दिसंबर १९८४ में हुआ था और उसकी वजह तो प्रकृति पर दे दिया किन्तु असल वजह घूसखोरी और भ्रष्टाचार है और आज जो हम चेन्नई की त्रासदी को भी प्रकृति का दोष मान रहे हैं ! आँखें खोल रे इंसान कब तक खुद को और दूसरों को अँधेरे में रखेगा? आखिर अपने ही वंशज को खोएगा क्यूंकि जब वर्षा से बाढ़ आई तब उसने उंच -नीच कुछ नहीं देखा। यहीं सीख ले इंसान स्वर्ग-नरक का खेल यहीं हैं ! छोटा-बड़ा का मोल सबको आखिर एक ही तरह चुकाना पड़ता है - जाग जा इंसान, अपने ही अंत का कारन बन रहा है तू कैसा बुद्धिजीवी है रे? जागो, अन्याय, भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज उठाओ, चंद  सिक्कों के लिए अपनी ही नहीं  सारी  इंसान जाती का सर्वनाश न करो.  ~ फ़िज़ा 

भगोड़े निकले आप तो :)

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मज़ाक समझ रखा है, बीवी कहती है देश छोड़दो कहीं और चलो और महाशय ने सबसे केह भी दिया और सभी ने बढ़-चढ़ कर प्रोत्साहन भी कर दिया - भई वाह! आमिर खान एक भारतीय और एक हिंदी फिल्म जगत के जाने-माने अभिनेता हैं. भारत में हो रही दुर्भाग्यवश घटना और आम लोगों की जीवनचर्या को सरकार ने अपने नए कारनामों की वजह से एक खलबली मचा राखी है और लोग अपने हर तरीके से इस बात का खंडन कर रहे हैं और यहाँ हमारे आमिर खान जी आये देश से विदेश की ओर लपकने.  हम तो पूछेंगे कल को दुनिया में ऐसी असहिष्णुता (इनटॉलेरेंस) आई तो क्या दुनिया छोड़ देंगे? उम्मीद तो बहुत थी आमिर खान से जिन्होंने सत्यमेव जयते जैसा कार्यक्रम करके अपनी झोली तो बहुत भरी लेकिन सोचा कुछ आम जनता में जागरूकता भी लायी, खेर देश में ही रूककर सरकार का विरोध करते और अपने अन्य देशवासियों का साथ निभाते जो उन्ही की तरह अपनी ज़िन्दगी और अपने आने वाले बच्चों के भविष्य के लिए चिंतित हैं।  भगोड़े निकले आप तो :) ~ फ़िज़ा 

मेरी दरख्वास्त दोस्तों से ... !!!

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दोस्तों देश छोड़ दिया लेकिन जहाँ जन्म लिया वहां देश के बारे में सोचना क्यों छोड़ दें? और तो और प्रधानमंत्री ने खुद कहा के पूरा जहाँ हमारा है तो फिर लोग ऐसा दावा क्यों कर रहे हैं के देश की भलाई चाहते हो तो देश में आकर रहो? जितने साल हम देश में थे लड़े और भ्रष्टाचार कर्मचारियों को बेनकाब किया और बिना घूसखोरी के अपने काम पूरे किये। इतने बड़े देश का एक तिनका होनेके बावजूद हमने अपना कर्म और धर्म निभाया - यहाँ धर्म इंसानियत है ! मुझे मेरे सभी साथियों से यही कहना है की आप लोग जो समर्थन कर रहे हैं मुझे - सामने आकर या फिर सन्देश भेजकर उन सभी को मैं तहे-दिल से शुक्रिया कहना चाहती हूँ। और मैं ये भी कहना चाहती हूँ के दोस्तों यदि किसी कारणवश आप डरते हैं की मुझ से सहमत होने से आपको अपनी छवि (इमेज) ख़राब होती है या बेनकाब हो जाते हो तो आप कृपया करके सहमति न दीजिये और साथ न दीजिये - मुझे इस बात का कतई बुरा नहीं लगेगा। स्वंत्र भारत में पैदा हुई हूँ मैं और महाराष्ट्र के राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में पली  बड़ी हूँ इस करके भी दिल की बात कहना और अपनी बात स्पष्ट रूप से कहने का हक़ रखती हूँ।  हमारे बाल गंगाधर ति

एक शाम सर्कस के नाम .... :(

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बचपन में माता-पिता और भैया के साथ सर्कस देखने जाया करते थे।  उन दिनों परिवार के साथ बहार जाना, घूमना, शॉपिंग करना और मनपसंद का खाना होटलों में खाना जैसे की बस एक दिन में पूरी ज़िन्दगी जी लेने समान होता था. तब सर्कस में करतब दिखने वाले जानवर हों या फिर इंसान सभी खूब पसंद आते थे और कर्तबगारी दिखने वाला भी बलवान और पहलवान नज़र आता था. बचपन तो आखिर बचपन होता है जहाँ सही -गलत, अच्छे -बुरे की पहचान नहीं होती थी और न ही हमारे ज़माने में इतनी जानकारी होती थी जो आजकल के युग में बच्चों को मिलती है. काफी सालों बाद हम कुछ मित्रों के संग सर्कस देखने गए. सर्कस की बात करते हैं तो जैमिनि सर्कस याद आता है काफी मशहूर रहा है भारत में अपने समय में. खैर अमेरिका में तो फिर चकाचौंध की दुनिया है काफी सजीला और तर्कब्दार माहोल था और एक से एक स्त्री-पुरुष करतब दिखा कर लोगों का मनोरंजन करते रहे और फिर वो वक़्त भी आया जब हाथी घोड़े और ऊँट भी आये फिर चीते भी आये… हर एक हंटर की आवाज़ पर जानवर कठपुतली की तरह रिंग मास्टर के इशारों पर नाचता लोग तालियां बजाते और रिंग मास्टर ज़मीन पर हंटर मारता। जा

मृत्यु दंड, ये एक सजा है या फिर हत्या करने का एक तरीका ?

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मृत्यु दंड, ये एक सजा है या फिर हत्या करने का एक तरीका ? मेरा मानना है की किसी भी जीव की हत्या, हत्या होती है और इसे किसी भी रूप में पनपने या सराहने नहीं देना चाहिए ! जानवर हो या इंसान जीवन तो सबका एक सामान होता है, फिर आपको या हमको या किसी भी जगह के नियम को क्या हक़ है किसी को भी मृत्यु दंड देने का ? जीवन देना और लेना कभी भी इंसानी हक़ में नहीं है ! यहाँ तक की आत्महत्या भी एक अभिशाप है, ये गलत है - ऐसा मेरा मानना है।  किसी भी द्रोही हो या निरद्रोही कानून के फैसले होने तक क्या पता किसकी जान ले ली गयी है निर्मोही मृत्यु दंड के तहत. अपराधी को दंड दो परन्तु मृत्यु दंड नही. इसका खंडन मैं करती हूँ इस लेख द्वारा क्यूंकि हमें अपराध से घृणा होनी चाहिए न के अपराधी से क्यूंकि ये इंसान ही है और हम और आप भी इंसान हैं और ग़लतियां या गुस्ताखियाँ हम सब से हो सकतीं हैं - मानव त्रुटि के तहत मृत्यु दंड बहुत ही नाइंसाफी है और इंसानी भाषा में इसे महज़ हत्या करना है ! दंड से भय पैदा होता है और भय से इंसान की मानसिक रूप से गलत प्रभाव पड़ता है. इंसान का मन बदलना चाहिए और उसके लिए जो प्रयास हो सके वही करन

ये मैं नहीं अनुभव कहता है ;)

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कल्पना के घोड़े भी दौड़ना क्या दौड़ना है, एक पल आप हवा में तो एक पल पाताल में ! ऐसे में एक सय्यम बरतना कितना ज़रूरी हो जाता है।  कल्पना जितना हमें सुलझाने में मदत करती है उतनी ही उलझने में भी कामियाब होती है।  ये अनुभव कहता है, मैं नहीं हा हा हा।   अक्सर कल्पना की वजह से हौसले का बुलंद होना और न होना बहुत हानिकारक हो सकता है।  रिश्ते में दबाव तो कभी दरार पैदा हो सकता है।  इसीलिए कल्पना रुपी पतंग को जोर का हवा चलते वक़त न उड़ाएं शायद पतंग तुम्हें भी उड़ा ले जा सकती है - ये मैं नहीं अनुभव कहता है :)

इंसान तू कब हैवान बना ये तू भी नहीं जानता

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मुझे नफरत है जो इंसान बेहकावे में आजाते हैं। हम अपनी मर्ज़ी से नहीं पैदा होते .... एक वजह होती है हमारे इस संसार में आने के लिये और उसकी वजह एक स्त्री और पुरुष के अलावा कुछ नहीं होता. लेकिन हम इंसान अपने आपको जितनी बंदिशों और दायरों में बांध के रखें उतना ही अपने आपको सुरक्षित मेहसूस करते हैं।  लानत है... ऐसे इंसानियत पर । क्युंके में एक हिन्दू परिवार मैं जनी हो के किसी एक गांव, एक प्रदेश या एक जाती से हैं इस करके मेरा सोचना और  रेहना  सब कुछ उसी प्रदेश और प्रांत जैसे होना वाजिब नहीं, मुझे मेरी आज़ादी है सोचने की और उस सोच पर अमल करने की और ये मेरा जन्मसिध अधिकार है।  इसे ना तो कोई नेता या प्रजा या प्रजातंत्रा या राजनेतिक दल बदल सकता है। इतने साल में दुनिया को जो देखा और लोगों को जो समझा आज मुझे गर्व और कृतगयता मेहसूस होता है अपने माता-पिता के प्रति जिन्होने कभी भी मुझे एक हिन्दू होकर जीने में प्रोत्साहित या दबाव भी नहीं डाला। मुझे मेरा बचपन याद आता है जहां मैं मंदिरों में जाती थी, वहीं मेरी पड़ोसी आंटी जो की एक पेंटिकोस्‍टल ईसाई थी और उनकी अपनी बेटी अस्पताल में होने पर मुझे अ

एक-दूसरे को इंसान समझिये और हैवानो को इंसान बनाइये ना के उन्हें मिटाकर खुद हैवान बन जायें!

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शिक्षा केहते हैं इंसान का ज्ञान बढ़ाते हैं और तो और अज्ञानता को दूर करता है . बहुत हद्द तक मेरा भी मानना यही था तब तक जब तक के मैने पढ़े-लिखे लोंगों को सभ्यता से पेश आते देखा है. जैसे जैसे जीवन को करीब से देखने का अवसर मिला है तो यही देखा है की पढ़े-लिखे और अनपढ़ लोगों में ज्यादा फरक नहीं है बल्कि कई बार अनपढ़ को फिर भी इंसानियत का ज्ञान होता है, लेकिन मैने पढ़े-लिखे लोगों को अज्ञानता से भरे और हैवानियत से भरी बातें और कर्म करते हैं सुना है और ये खुले आम होते देखने के बाद इंसानियत से विश्वास जैसे टूट सा गया है. जानवर से यदि हम सीखें तो बहुत कुछ हम अब भी अपने दायरे में रेहा सकते हैं. आज इंसान इसी होड़ में लगा है के वो किस हद्द तक अपने स्तर से गिर सकता है ताके इंसानों से क्या अपने आने वाली कई पीड़ियों से वो नज़र नहीं मिला सकता. बचे कुचे इंसानो को ये देखकर चुप नहीं रेहाना है बल्कि इसके विरूध आवाज़ उठानी है और आम जनता में इसकी जागरूकता लानी है  एक-दूसरे को इंसान समझिये और हैवानो को इंसान बनाइये ना के उन्हें मिटाकर खुद हैवान बन जायें! 

धोका ना खाना ये "मत" मत देना दलबदलियों को ...

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आजकल जो देखो कुछ ना कुछ बेचने निकला है फिर चाहे वो स्त्री हो या पुरुष - कोई फरक नहीं पड़ता . जबतक स्त्री पर अत्याचार होता है तब एक इंसानी दौर पर किसी को भी अपना हक या उतरदायित्वा समझ नहीं आता लेकिन जैसे ही चुनाव का मामला आजाता है हर कोई स्त्री का दुख समझने भी लगता है और उसका परिहारण भी करना।  फाड़ दो इस नक़ाब को परिहारण करना ही है तो किसी को किसी पदवी या कुर्सी की ज़रूरत नहीं होती....बस उद्धार करने का दिल होना चाहिये वो ज़स्बा होना चाहिये ढोंगियों का पर्दा फाश हो ! जनकल्याण और लोकतंत्रा का  यही  है नारा !

ज़िंदगी में अपनी पेहचान बनाना सीखो ना की किसी की पेहचान से लटक कर उनकी दूम बन जाओ ;)

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ज़िंदगी में कभी किसी को भी आप कितना भी चाहो या पंसंद करो मगर जिस बात से आप वाक़िफ़ ना हो या फिर जिस बात को आप नहीं मानते हो तो उस बात पर टिके रहो। जसबाती होने से राय नहीं बदलना चाहिये. अपनी राय या अपनी सोच अपनी होती है और ये अपने होने का भी एक सबूत है . जैसे के मैं बापू को मानती हूँ लेकिन बापू के हर बात को मैं नहीं मानती और जिस बात को मैं नहीं मानती में उसका समर्थन भी नहीं करती. बापू जब केहते हैं अस्पृश्यता एक अभिशाप है तो मैं मानती हूँ और कबूल करती हूँ लेकिन वहीं जब बापू केहते हैं के कोई एक गाल पर मारे तो दूसरा गाल भी हाज़िर कर दो - इस बात को मैं नहीं मानती और इसका समर्थन भी नहीं करती। ज़िंदगी में अपनी पेहचान बनाना सीखो ना की किसी की पेहचान से  लटक कर  उनकी दूम बन जाओ.  अपने होने का दम भरो और स्वाभिमान से जियो, होसले के साथ जियो !