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Showing posts from October, 2014

ईर्ष्या सिर्फ इंसान के अंदर की असुरक्षा है ...

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ज़िंदगी में किसी से ईर्ष्या करने से क्या फायदा करना ही है तो अच्छे गुणो को अपनाओ जिस से खुद भी तारीफ के काबिल बनो वर्ना ईर्ष्या से दुश्मनी और कड़वाहट ही पैदा होती है और ये आग जब फैलती है तब इसे किसी भी तरह रोका नहीं जा सकता। सब कुछ नष्ट हो जाता है और जब तक पता चले बहुत देर हो जाती है। इंसान अगर इंसान से ही नफरत और द्वेष  की भावना रखे तब वो तो जानवर के भी काबिल नहीं रेहता - अफसोस !

मर्द भी पीड़ित हैं आज की नारी से जिसे कभी हम अबला समझते थे ....!

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ज़िंदगी में बहुत कम समय में बहुत कुछ सीखने और समझने का मौका मिला। कयी बार हम देखते हैं लोगों के रवैये कभी कुछ तो कभी कुछ लेकिन इसी रवैये को आप दो तरीके से देख सकते हैं या भांप सकते हैं और वो ये के शायद ये प्यार से हक दीखाने का नज़रिया है या फिर कहें तो वाक़ई तकलीफ देने के इरादे से ही है . मैने औरतों को समय समय पर मौके का फायदा उठाते देखा है जब में ये केहा रही हूँ तब ये नहीं केहा रही के आदमी सब शरीफ हैं :) , ना ऐसा नहीं लेकिन हम औरतें भी कुछ कम नहीं हैं मौका देखा नहीं अपने फायदे के अनुसार हम अच्छे बनेंगे या फिर बुरे।  मेरी बात तो कुछ ऐसी है के कभी किसी से कुछ उम्मीद ही नहीं रखी जो भी रखा अपने पिताजी से ही रखा और जैसे ही उनके सर से जिम्मेदारी खत्म होकर आत्मनिर्भर का समय आया तो किसी और पर निर्भर होने की लालसा भी नहीं रही। मुझे लगता है किसी पर इतना निर्भर होना और वो भी बेफिक्र होकर तो पिता से बढ़कर एक लड़की के लिये कौन हो सकता है। लेकिन दुनिया में ऐसे भी औरतों को देखा है जो पिता का स्थान खत्म होते ही पति के सर चड़ जाते हैं के मुझे ये चाहिये वो चाहिये महल चाहिये बड़ा घर, तो कभी ज़ेवर, त

ज़िंदगी बहुत छोटी है दोस्ती से इसे खुशनुमा करो ना के दुश्मनी से ...!

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आज अनायास ऋषब की याद आई - हाँ बात है तो कयी साल पुरानी जब ११ वीं कक्षा में मैं पढ़ती थी और ऋषब शायद छोटी कक्षा में था मगर था हूमसे भी उम्र में बड़ा. ऋषब था बड़ा नेक बच्चा मगर थोड़ा लड़कपन तो थोड़ी अकड़ भी थी उसमें अभी. कभी किसी अध्यापिका की डांट पड गयी तो कभी किसी दूसरे बच्चों ने शिकायत लगा दी जो भी हो ऋषब के दिन बहुत बुरे होते थे. जाने मेरी मुलाकात किधर हुई मगर ऋषब बड़ी इज्जज़त से पेश आता था मुझ से. एक दोस्त की हेसियत हमेशा खयाल रखता था चाहे फिर वो उसकी उम्र का हो या फिर उस से कम उम्र हो या फिर बुज़ुर्ग ही क्यूं ना हो।  एक दिन ऋषब हमारी कक्षा में कुछ लड़कों के साथ बातें करते - करते किसी की पेन्सिल बॉक्स से ब्लेड लेकर खेलने लगा और उसे तोड़कर-मरोड़कर  वहीं  कहीं छोड़कर चला गया। हमारी कक्षा के विद्यार्थी  खेलने  के बाद अगली विषय की पढ़ाई के लिये कक्षा में पधारे. कक्षा में अध्यापिका भी आगयीं थी इस वजह से जो जहां जगह पा सका वहीं बैठ गया और अध्यापिका को सुनने में लीन हो गया. श्रीमती सिन्हा थी हमारी अध्यापिका जो के  हमें   जीव-विज्ञान  (biology)  पढाती  थी. उन्होने बोर्ड पर आकर कुछ ल

सच्चा होना गुनाह है ...

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सच्चा होना गुनाह है ये जानकर मेरे अंदर का एक बहुत बड़ा हिस्सा मर सा गया आज. कहाँ सुना था सत्य मेव जयते लेकिन दुनिया सिर्फ वोही सुनना चाहती है जो वो सुनना चाहते हैं. बात मेरे पिताजी की याद आई के ज़िंदगी में दो तरह के लोग मिलेंगे एक जो तुम्हारी सच्ची बातें सुनकर भी तुम्हारा साथ देंगे और दूसरे तुम्हारी सच्ची बातें सुनकर तुम्हें अपना दुश्मन समझेंगे. जो दोस्त बन जायें वो हमेशा के लिये होंगे लेकिन जो दुश्मन होंगे उनसे सतर्क रेहना क्युंके वो सच का साथ देने वालों के दुश्मन हैं . मुझे लगता था इंसान सच और झूठ का साथ देता है और उसे इंसान के साथ और झूठे होने से वर्क नहीं पड़ता क्युंके बापू भी कहा करते थे के पाप से घृणा करो पापी से नहीं। खैर, दिल को धक्का लगा के अपने बारे में ये जानकर के मैं  ज़रूरत से ज्यादा सच बोलती हूँ और ये ठीक नहीं है  वाक़ई गलत तो मैं ही हूँ ना, जो सच बोलती हूँ और आंख में आंख डालकर सच बोलती हूँ बिना किसी झिझक के या भय के.  जब एक इंसान ज़रूरत से ज्यादा सच बोलता है तो दुनिया उसका मुंह बंद कर देती है -  हर उठते हुये का गिरना भी पड़ता है, लेकिन गिराता कौन है उसकी भी औकात

प्यार की कोई सीमा नहीं होती और ना ही कोई नियम....

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एक था मोटा और एक थी मोटी उन दोनो की एक खास बात ये थी के दोनो ही मोटे नहीं थे, लेकिन वो के दूसरे को प्यार से इसी तरह संबोधित करते. मोटा जब मोटी से बात-चीत के कमरे में मिला (छट - रूम) तब वे दोनो ये नहीं जानते थे के उन्हें यहाँ उनका अपना कोई मिलेगा क्यूंकि ऐसी कोई उम्मीद से नहीं आये थे वो यहाँ. सिर्फ एक वक़्त गुज़ारने का साधन था लेकिन उस रात ऐसी बात नहीं थी। दोनो एक दूसरे को जानते भी नहीं थे और मोटा - पंजाबी मुंडा के नाम से आया था और मोटी पंजाबी कुडी के नाम से आई थी जो भी दोनो ने जो अंताक्षरी में बात-चीत शुरू की के कब सुबहा के २ बजे इसका दोनो को ही अंदाज़ा नहीं लगा बस फिर क्या था पंजाबी मुंडे ने जाते-जाते पंजाबी कुडी से एमआईल अड्रेस लेलिया और बस ज़िंदगी भर का रोग या फिर नाता बना लिया। मुंडा लम्बी - लम्बी चिट्ठी लिखता और अंग्रेजी के गाने लिख कर भेजता. पंजाबी कुडी ये सब पढ़कर खुश होती खासकर इसीलिये की ये सब उसके पसंदीदा गानो में से एक होते और उसे ताज्जुब होता की मुंडे को ये सब कैसे पता के उसकी पसंद क्या है? खैर जो भी हो दोनो चिट्ठियों से बोर होकर जल्द ही फोन की दुनिया में आये और बस फिर क्या

प्यार क्या होता है?... कुछ बात मेरी मां की

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प्यार क्या होता है? .... क्यूं होता है, इसका जवाब कभी भी किसी से भी नहीं मिला मुझे आज तक ... मगर हाँ, प्यार क्या होता है? प्यार ज़रूरी नहीं के केहाकर ही होता है. कई बार प्यार जो के एक एहसास होता है, उसे समझना भी होता है और सही अर्थ में प्यार के इस एहसास को समझने वाला ही प्यार के लायक भी होता है। आज अनायास मैं गाड़ी चलाकर बाज़ार जा रही थी जब खयाल आया ... कुछ बात मेरी मां की.  मेरी मां, सख्त है अर्थपूर्ण नहीं है वो कभी भी किसी को भी कोई बात केहाकर नहीं जताती यहाँ तक के अपने बच्चों से भी कभी ये नहीं कहा के उन्हें  प्यार है बल्कि उनकी हर वो बात जो हमसे सम्बंधित होती हैं उनका पूरा-पूरा ध्यान रखा है. लेकिन खास आज मैं ये केहना चाहती हूँ के मेरी मां आजीवन अब तक शाकाहारी रही हैं मगर मेरे पिता मांसाहारी रहे हैं और बेहद पसंद करते हैं जब मेरी मां बनाती हैं - जी हाँ, ताज्जुब है ना? आज मुझे उस समय की जोड़ी के बारे में बताना है जो के आज के पीढी के नहीं हैं लेकिन उनके प्यार करने का अंदाज़ भी निराला है। मेरी मां शाकाहारी होने के बावजूद मेरे पिताजी के लिये मांसाहारी भोजन बनाती है , मेने कभी मेरे ज

अफसोस कब वो दिन आयेंगे....

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त्योहारों का देश है हमारा भारत और उसकी संस्कृति की शान उसके लोगों से है जो इन्हें मनाते हैं . पौराणिक काल में मंदिर ही ऐसे जगह होते थे जहां सामूहिक तौर पर लोग मिलते और खुशियाँ मनाते जिसका धर्म से कोई सम्बंध नहीं होता, दीवाली श्री राम के आगमन की खुशी में मनाते हैं तब भी चाहे हिन्दू हो या मुसलमान, ईसाई हो या फिर सिख, जैन हो या बुध - सभी एक होकर त्योहार मनाते, मिठाईयों का आदान प्रदान करते. ठीक ईद के समय भी हर किसी जाती-प्रांत के लोग सेवाई खाने की इच्छा में मुसलमान भाई के घर ज़रूर हो आता या आती. त्योहार हमारी संस्कृति को ही नहीं बल्कि हमारे लोगों में भाई-चारा और दोस्ती का मेल-जोल बढ़ाते हैं. लेकिन अब का ज़माना वाक़ई कलयुग से भी बढ़कर है जहां आस्तिक हो या फिर नास्तिक हर किसी ने नाम में दम कर रखा है . हर त्योहार को ईश्वर, अल्लाह नानक बताकर उसकी विवेचना करते और फिर क्या है  नास्तिक वहां मचल पड़ता है और बस हर कोई अपने को सही बताने और जताने की होड़ में लगा है। कब रुकेगा ये सब, कब होगा इसका अंत क्युंके जो वाक़ई में त्योहारों से बहुत कुछ जोड़ता है अपने जीवन से, बचपन से, अपने साथियों से उन सबक

साथियों को दशेहरा मुबारक हो

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आज सुबहा मैं अपनी सहपाठी से बात कर रही थी जब दशेहरा की बधाई  मिली  तब अनायास ही बचपन का दशेहरा याद आया. राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में रेहते वक़्त दस दिन तक रामलीला चलता था, जाने-पेहचाने लोग अभिनय करते थे और हर एक चौपाई गा के सुनाया जाता था. केन्द्रिया विधायला में रामायण जिसे साथ खंडो में बांटा गया था उसे पढ़ते वक़्त भी रामलीला की रामायण से कथा को जोड़ने की कोशिश करते थे. दशरथ और कैकई और उनकी चाल फिर राम को चौदाहा वर्ष वनवास और फिर एक के बाद एक खण्ड अभिनीत किया जाता था। जब दसवें दिन राम अपने रामबाण से रावण का वध करते हैं तब मन में जहां खुशी होती थी के लंका पर विजयी हुये राम, लेकिन फिर एक दुख भी होता था के अब रात को रामलीला नहीं होगा क्युंके जैसे हर कहानी की शुरुवात होती है उसी तरह उसका अंत भी. दूसरे दिन दोपहर को रामलीला की टोली निकल पड़ती थी राम, सीता, लक्ष्‍मण, हनुमान को एक मिलिटरी ट्रक में बैठाकर सारे कॉलोनी में जुलूस  निकाला  जाता था और सारे बच्चे राम-सीता को देखने के लिये दौड़ पड़ते थे. ये जानते हुये भी के सीता के रूप में कोई और नहीं सामने वाले अंकल का बेटा है लेकिन सीता के अवतार में