ज़िंदगी बहुत छोटी है दोस्ती से इसे खुशनुमा करो ना के दुश्मनी से ...!
आज अनायास ऋषब की याद आई - हाँ बात है तो कयी साल पुरानी जब ११ वीं कक्षा में मैं पढ़ती थी और ऋषब शायद छोटी कक्षा में था मगर था हूमसे भी उम्र में बड़ा.
ऋषब था बड़ा नेक बच्चा मगर थोड़ा लड़कपन तो थोड़ी अकड़ भी थी उसमें अभी. कभी किसी अध्यापिका की डांट पड गयी तो कभी किसी दूसरे बच्चों ने शिकायत लगा दी जो भी हो ऋषब के दिन बहुत बुरे होते थे.
जाने मेरी मुलाकात किधर हुई मगर ऋषब बड़ी इज्जज़त से पेश आता था मुझ से. एक दोस्त की हेसियत हमेशा खयाल रखता था चाहे फिर वो उसकी उम्र का हो या फिर उस से कम उम्र हो या फिर बुज़ुर्ग ही क्यूं ना हो।
एक दिन ऋषब हमारी कक्षा में कुछ लड़कों के साथ बातें करते - करते किसी की पेन्सिल बॉक्स से ब्लेड लेकर खेलने लगा और उसे तोड़कर-मरोड़कर वहीं कहीं छोड़कर चला गया। हमारी कक्षा के विद्यार्थी खेलने के बाद अगली विषय की पढ़ाई के लिये कक्षा में पधारे. कक्षा में अध्यापिका भी आगयीं थी इस वजह से जो जहां जगह पा सका वहीं बैठ गया और अध्यापिका को सुनने में लीन हो गया. श्रीमती सिन्हा थी हमारी अध्यापिका जो के हमें जीव-विज्ञान (biology) पढाती थी.
उन्होने बोर्ड पर आकर कुछ लिखने के लिये कहा और मैं जा ही रही थी के डेस्क पर जाने कैसे हाथ लगा और उस ब्लेड से मेरा हाथ छिल गया।
खून बहुत ज़ोरों से बेहने लगा ऐसे में सभी खून रोकने का साधन ढूंडने लगे। मैं वहीं खड़ी थी के ऋषब कक्षा के बाहर से जाता देख दौड़कर अंदर की तरफ आया और केहने लगा क्या हुआ और झठ से मेरा हाथ उठाकर ऊपर की तरफ कर दिया ताके खून का बहाव कम हो।
कक्षा में सभी साथी चाहे वो लड़के हों या लड़की सभी एक जूट होगये मेरी सहायता करने और खास कर ऋषब जिसने ये देखने की कोशिश की के उंगली किस चीज़ से टकरायी जो की इस कदर खून बेहने लगा। जैसे ही ऋषब को पता चला की ये ब्लेड से कटा है तो अपने आपको दोषी मानने लगा और अध्यापिका से कहा के ये मेरी गलती है और मैं इसे ठीक करना चाहता हूँ वर्ना घुट-घुटकर दोषी होने की भावना मुझे चेन से रेहने नहीं देगी. ऋषब ने आव ना देखा ताव बस हाथ पकड़कर लेगया अपनी स्कूटर में सीधे मिलिटरी हस्पताल जहां उसने अपने पिता के ऑफीसर होने के रूबाब से सारी सहायता मुझ पर लगा दी. मुझे टेटेनस का इंजेक्षन भी लगा और मरहम पट्टी के बाद सीधे स्कूल में लाकर कक्षा में छोड़ दिया. श्रीमती सिन्हा, ऋषब के इस व्यवहार से बहुत प्रभावित हुई और एक अध्यापिका से दूसरी अध्यापिका और एक छात्रा से दूसरी इस तरह ऋषब की उदारता और सहायता से भरी व्यवहार और स्वभाव का चर्चा होने लगा।
जहां स्कूल के अध्यापक, प्रिन्सिपल और छात्र -छात्रायें सभी दोषी और गुंडा होने की नज़र से देखते थे वोही अब हीरो बन गया था स्कूल में. ऋषब का ये परिवर्तन सभी को भा गया और आश्चर्य भी कर गया.
ज्यादा कुछ नहीं ऋषब को एक दोस्त की ज़रूरत थी, उसे एक ऐसे दोस्त की ज़रूरत थी जो उसे समझ सकता हो बस इतनी सी बात मगर काम तो बड़ी कर गयी ना?
मेरी शुरू से ऋषब के साथ अच्छी ही बनी रही - आज उंगली का निशान देखकर ऋषब की याद अनायास आगयी !
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