अफसोस कब वो दिन आयेंगे....

त्योहारों का देश है हमारा भारत और उसकी संस्कृति की शान उसके लोगों से है जो इन्हें मनाते हैं . पौराणिक काल में मंदिर ही ऐसे जगह होते थे जहां सामूहिक तौर पर लोग मिलते और खुशियाँ मनाते जिसका धर्म से कोई सम्बंध नहीं होता, दीवाली श्री राम के आगमन की खुशी में मनाते हैं तब भी चाहे हिन्दू हो या मुसलमान, ईसाई हो या फिर सिख, जैन हो या बुध - सभी एक होकर त्योहार मनाते, मिठाईयों का आदान प्रदान करते. ठीक ईद के समय भी हर किसी जाती-प्रांत के लोग सेवाई खाने की इच्छा में मुसलमान भाई के घर ज़रूर हो आता या आती. त्योहार हमारी संस्कृति को ही नहीं बल्कि हमारे लोगों में भाई-चारा और दोस्ती का मेल-जोल बढ़ाते हैं.
लेकिन अब का ज़माना वाक़ई कलयुग से भी बढ़कर है जहां आस्तिक हो या फिर नास्तिक हर किसी ने नाम में दम कर रखा है . हर त्योहार को ईश्वर, अल्लाह नानक बताकर उसकी विवेचना करते और फिर क्या है  नास्तिक वहां मचल पड़ता है और बस हर कोई अपने को सही बताने और जताने की होड़ में लगा है।
कब रुकेगा ये सब, कब होगा इसका अंत क्युंके जो वाक़ई में त्योहारों से बहुत कुछ जोड़ता है अपने जीवन से, बचपन से, अपने साथियों से उन सबका मानो एक कत्ल हो जाता है. वाक़ई इंसान में इंसान के लिये भावना भी मर सी चुकी है.
अफसोस कब वो दिन आयेंगे जब हम बिना जाती भेद-भाव, आस्तिक-नास्तिक की लड़ाई से दूर एक हासी-खुसी के माहोल में मिल-जुलकर त्योहारों का लुत्फ उठायेंगे और मिठाइयां खाते हुये एक-दूसरे के दिल में भी मिठास पैदा करेंगे?

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